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Today's Significance: आखिर क्यों आज के दिन मनाया जाता हैं कारगिल विजय दिवस, जानें 26 जुलाई का इतिहास

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Posted On:Friday, July 26, 2024

इतिहास न्यूज डेस्क !!! 26 जुलाई 1999 भारत के लिए बेहद खास तारीख है. यह वह तारीख है जब भारतीय सेना के वीर जवानों ने टाइगर हिल, प्वाइंट 4875, प्वाइंट 5140 समेत सभी पहाड़ी चोटियों को पाकिस्तानी सेना के कब्जे से मुक्त कराकर कारगिल युद्ध जीता था। यह तारीख पाकिस्तान पर भारत की जीत और हमारे सैनिकों की वीरता की कहानियों का प्रतीक है। विजय दिवस प्रत्येक वर्ष '26 जुलाई' को मनाया जाता है। भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य में आज से 25 वर्ष पहले भारतीय सेना ने 26 जुलाई, 1999 के ही दिन नियंत्रण रेखा से लगी कारगिल की पहाड़ियों पर कब्ज़ा जमाए आतंकियों और उनके वेश में घुस आए पाकिस्तानी सैनिकों को मार भगाया था। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ यह पूरा युद्ध ही था, जिसमें पांच सौ से ज़्यादा भारतीय जवान शहीद हुए थे। इन वीर और जाबांज जवानों को पूरा देश '26 जुलाई' के दिन याद करता है और श्रद्धापूर्वक नमन करता है। देश की इस जीत में कारगिल के स्थायी नागरिकों ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी।

युद्ध की पृष्ठभूमि

कारगिल युद्ध, जो कि 'कारगिल संघर्ष' के नाम से भी जाना जाता है, भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में मई के महीने में कश्मीर के कारगिल ज़िले से प्रारंभ हुआ था। इस युद्ध का महत्त्वपूर्ण कारण था बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों व पाक समर्थित आतंकवादियों का 'लाइन ऑफ कंट्रोल' यानी भारत-पाकिस्तान की वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर घुस आना। इन लोगों का उद्देश्य था कि कई महत्त्वपूर्ण पहाड़ी चोटियों पर क़ब्ज़ा कर लेह-लद्दाख को भारत से जोड़ने वाली सड़क का नियंत्रण हासिल कर सियाचिन ग्लेशियर पर भारत की स्थिति को कमज़ोर कर हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा पैदा करना। पूरे दो महीने से भी अधिक समय तक चले इस युद्ध में भारतीय थलसेना व वायुसेना ने 'लाइन ऑफ कंट्रोल' पार न करने के आदेश के बावजूद अपनी मातृभूमि में घुसे आक्रमणकारियों को मार भगाया था। स्वतंत्रता का अपना ही मूल्य होता है, जो वीरों के रक्त से चुकाया जाता है।

जवानों की शहादत

इस युद्ध में भारत के पाँच सौ से भी ज़्यादा वीर योद्धा शहीद हुए और 1300 से ज्यादा घायल हो गए। इनमें से अधिकांश जवान अपने जीवन के 30 वसंत भी नहीं देख पाए थे। इन शहीदों ने भारतीय सेना की शौर्य व बलिदान की उस सर्वोच्च परम्परा का निर्वाह किया, जिसकी सौगन्ध हर भारतीय सिपाही तिरंगे के समक्ष लेता है। इन रणबाँकुरों ने भी अपने परिजनों से वापस लौटकर आने का वादा किया था, जो उन्होंने निभाया भी, मगर उनके आने का अंदाज़निराला था। वे लौटे, मगर लकड़ी के ताबूत में। उसी तिरंगे मे लिपटे हुए, जिसकी रक्षा की सौगन्ध उन्होंने उठाई थी। जिस राष्ट्र ध्वज के आगे कभी उनका माथा सम्मान से झुका होता था, वही तिरंगा मातृभूमि के इन बलिदानी जाँबाजों से लिपटकर उनकी गौरव गाथा का बखान कर रहा था।

पाकिस्तान के विरुद्ध लड़े गए चौथे युद्ध के चिह्न कारगिल में नज़र आ जाते हैं। पाकिस्तानी गोलाबारी से बचने के लिए घरों में बनाए गए बंकर भी मौजूद है। पर्यटन बढ़ने के साथ-साथ अब उन्हें गेस्ट हाउस व होटलों में परिवर्तित किया जा रहा है। कारगिल युद्ध को खत्म हुए 25 साल बीत जाने के बाद भी सेना काफ़ी सतर्क है। 168 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा जो द्रास, कारगिल और बटालिक से गुज़रती है, उस पर नज़र के लिए सेना की संख्या काफ़ी बढ़ा दी गई है। 1999 में यह तादाद जहाँ 4000 हज़ार थी, वो अब 20 हज़ार के क़रीब है। जिस कारगिल को पाने के लिए सैकडों जवानों को शहीद होना पड़ा, उसकी जीत के इतने साल पूरे होने पर सेना एक बार फिर उन्हें श्रद्धांजलि देकर ये दिखाना चाहती है कि आज भी उनकी यादें यहाँ की फिजाओं में ज़िंदा है।

पर्यटन का विकास

कारगिल के साथ ही साथ द्रास व बटालिक भी लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन गए हैं। गत वर्ष लगभग बीस हज़ार देशी पर्यटक यहाँ आए थे। सहायक पर्यटन निदेशक रह चुके 'मोहम्मद हुसैन' बताते हैं कि कश्मीर के बिगड़े हालातों का ख़ामियाजा कारगिल को भी भुगतना पड़ा है। विदेशी टूरिस्ट कारगिल की ओर कम रुख़ कर रहे हैं। लेकिन जून अंत तक बीस हज़ार देशी पर्यटक कारगिल पहुंच चुके थे। पर्यटन की दृष्टि से हुए विकास को छोड़ दें तो कारगिल के हालात नहीं बदले हैं।

द्रास में 'वॉर मेमोरियल' के अलावा कुछ नहीं है। युद्ध में उजड़े कई गांव आज भी नहीं बस पाए हैं। सर्दियों में छह-सात माह तक यह पूरा इलाका दुनिया से कट जाता है, क्योंकि इसे 'अमरनाथ यात्रा' के बेस कैंप बालटाल से जोड़ने वाला 'जोजिला दर्रा' भारी बर्फबारी के कारण बंद हो जाता है। रोहतांग दर्रा बंद होने पर मनाली-लेह वाला दूसरा रास्ता भी रुक जाता है।

यहाँ के नागरिक जीवट वाले और मिलनसार होते हैं। स्थानीय लोगों के लिए ये छह-सात महीने बहुत कठिन होते हैं। उनकी देशभक्ति की दाद सेना भी देती है। सेना का मानना है यदि वे मदद नहीं करते तो विजय में बहुत मुश्किलें आतीं। दर्रा बंद होने के बाद राशन भी मिलना मुश्किल हो जाता है। जोजिला में टनल बनाने की योजना है।

2003 में 'ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल' बनी थी, लेकिन कुछ हाई स्कूलों को हायर सेकंडरी स्कूल में बदलने और तकनीकी शिक्षा के लिए आईटीआई खुलने के अतिरिक्त कुछ अधिक विकास नहीं हो पाया।

यहाँ के कुछ खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर आइस हॉकी खेलने जाते हैं। यहाँ पर फ़ोन सिग्नल की भी परेशानी रहती है। हिमालय बेल्ट में कारगिल मध्य एशिया के लिए प्राचीन रेशम मार्ग का केंद्र रहा है।

लेह, कश्मीर, जनकसर, पाक़ कब्ज़े वाले कश्मीर का स्कदरू और चीन की कई जगहों से कारगिल बराबर दूरी पर है। यदि कारगिल स्कदरू रोड को खोल दिया जाता है तो व्यापार के नए रास्ते खुलेंगे। भारत-पाक के बीच कुछ साल पहले तीन सड़कें खोलने पर सहमति बनी थी, लेकिन बनते-बिगड़ते रिश्तों के चलते इन सड़कों को अब तक खोला नहीं गया है। जिस रास्ते को पूरा करने में आज 4-5 दिन लग जाते हैं। कारगिल-स्कदरू सड़क के खुलने के बाद उसे केवल 5-6 घंटो में पूरा किया जा सकेगा।

टाइगर हिल

साढ़े सोलह हज़ार फीट की ऊंचाई पर टाइगर हिल को दुश्मन के कब्जे से छुड़ाना सेना के लिए सबसे कठिन लड़ाई थी। इसी लड़ाई में 'परमवीर चक्र' विजेता ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव ने शौर्य दिखाया था। वीरता की गाथा कहने वाली यह पहाड़ी अब पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हो रही है। यहाँ से सूर्योदय व सूर्यास्त बहुत सुंदर दिखाई देता है। इसलिए इस पहाड़ी को सनराइज और सनसेट पॉइंट के रूप में विकसित किया जा रहा है।

कारगिल में अपराध न के बराबर है। इलाके के पुलिस थानों में आज तक कोई केस दर्ज नहीं हुआ, न कभी कोई बड़ी चोरी या लूट की घटना ही हुई। कारगिल में लड़के वाले शादी के वक़्त लड़की वालों को तोहफे देते हैं, इसलिए यहाँ दहेज के मामले भी नहीं बनते।

पोलो का खेल

ग्यारह साल पहले तोप के गोलों से गूंजने वाला द्रास अब पोलो के लिए विश्वभर में जाना जाएगा जो क्षेत्र की अपनी अलग पहचान है। हाल ही में राज्य सरकार ने द्रास-बटालिक के पोलो ग्राउंड को अंतरराष्ट्रीय रूप देने के लिए एक लाख रुपए देने की घोषणा की है।

मान्यताएँ

माना जाता है कि द्रास में पोलो पाकिस्तानी कब्जे के बल्तीस्तान से आया है। द्रास के राजा की शादी बल्तीस्तान में हुई थी और रानी के साथ पोलो भी आ गया। द्रास के द्राड़ लोगों के पुरखे भी पोलो खेलते थे। इसके सबूत आज भी देखे जा सकते हैं। द्रास और बटालिक में कारगिल विजय दिवस से लेकर हर छोटे-बड़े आयोजन के दौरान पोलो मैच ज़रूर होता। यह पोलो आधुनिक पोलो से ही मिलता-जुलता है।



 


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